नई दिल्ली I कांग्रेस समेत सात राजनीतिक दलों की ओर से देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ लाया गया महाभियोग का नोटिस रद होने से नया महापचड़ा सामने आया है. अब असल सवाल यह है कि इस चुनौती की चिकचिक कब, कहां और कैसे आगे बढ़ेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट इसे सुन पाएगा? क्या संसद का विशेषाधिकार इसमें आड़े तो नहीं आएगा?
चूंकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा मौका कभी आया ही नहीं और संविधान निर्माताओं ने भी ऐसी विकट स्थिति की कल्पना नहीं की थी, ऐसी स्थिति बनने की सूरत में क्या कदम उठाया जाए और किस तरह से?
महाभियोग प्रशानिक कार्रवाई है या विधायी?
पहला पेंच तो यही फंसता है कि महाभियोग चलाने की प्रक्रिया प्रशासनिक है या विधायी, जहां तक इसके प्रशासनिक होने पर सवाल है वहां संविधान मौन है. अगर यह मामला विधायी है तो ऐसे मामले में इसके इस्तेमाल का कोई मौका अब तक आया ही नहीं यानी कोई नजीर ही नहीं मिलती तो आखिर इस फंसे हुए फच्चर को निकालें तो कैसे? चूंकि मामला विधायी है तो न्यायपालिका इसमें दखल ही नहीं देगी और प्रशासनिक है तो ज्यूडिशियल रिव्यू कौन करे?
सुनवाई कौन सी पीठ करे?
ज्यूडिशियल रिव्यू हो तो बड़ा मुद्दा यह कि सुप्रीम कोर्ट में इस याचिका की सुनवाई कौन सी पीठ करेगी? राज्यसभा के पदेन सभापति और देश के उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग चलाने के नोटिस को रद कर दिया है. अब विपक्ष नायडू के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रहा है.
मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो वहां यह कौन तय करेगा कि कौन सी पीठ विपक्ष की उस याचिका को सुने जिसमें राज्यसभा के सभापति के कदम को चुनौती दी गई है. मास्टर ऑफ रोस्टर यानी चीफ जस्टिस इसे खुद सुन नहीं सकते, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर इस याचिका को सुनेगा कौन?
जस्टिस दीपक मिश्रा समेत शीर्ष पांच जज भी नहीं
इस पूरे मामले के केंद्र में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा खुद आरोपों के घेरे में हैं, लिहाजा वो तो सुनने से रहे. रही बात नंबर दो यानी जस्टिस चेलमेश्वर की तो राज्यसभा सभापति ने अपने नोट में जस्टिस चेलमेश्वर सहित उन चारों जजों के नाम लिखे हैं जिन्होंने चीफ जस्टिस के कामकाज के तौर तरीकों पर असंतोष जताते हुए उनके खिलाफ खुलेआम बयान दिए थे.
लिहाजा नंबर दो जस्टिस चेलमेश्वर के साथ नंबर तीन जस्टिस तरुण गोगोई, नंबर चार मदन बी लोकुर और नंबर पांच कुरियन जोसफ भी पार्टी बन चुके हैं, लिहाजा ये जस्टिस भी सुनवाई में शामिल नहीं हो सकते. ऐसे में बचते हैं वरिष्ठता क्रम में नंबर छह से नंबर दस तक के जस्टिस. यानी क्रमवार देखें तो जस्टिस ए के सीकरी, जस्टिस शरद बोबड़े, जस्टिस आर के अग्रवाल, जस्टिस एम वी रमणा और जस्टिस अरुण मिश्रा ही बचते हैं.
संविधान भी है मौन, नई व्याख्या की जरूरत
दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस आरएस सोढ़ी का यह भी मानना है कि चूंकि संविधान इस मामले में मौन है लिहाजा ऐसी स्थिति की समीक्षा और भविष्य के लिए संविधान की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट के पांच या ज्यादा जजों की संविधान पीठ ही तय करेगी.
ऊपर से वरिष्ठ पांच जज तो किनारे हो गए तो बेंच तो उन्हीं जजों की बनेगी जिन्हें शिकायती जजों ने जूनियर कहकर उनके ही हर संविधान पीठ में शामिल होने को लेकर सार्वजनिक आपत्ति जताई थी और इसे मीडिया के सामने उठाया था. ऐसे में उनका इस मामले की सुनवाई करना न्यायसंगत होगा या नहीं, अभी यह भी स्पष्ट नहीं है.
कई पेंच में फंसे इस मामले पर यह देखने वाली बात होगी कि सुप्रीम कोर्ट की कौन सी पीठ इसकी सुनवाई करेगी.
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