नई दिल्ली I कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय जाने के कई लाभ भाजपा और संघ को मिलते दिखाई दे रहे हैं. कहने को तो तर्क दिए जा सकते हैं कि मोहन भागवत और प्रणब मुखर्जी के बीच घनिष्ठता है. वो एक-दूसरे वो व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हैं. प्रणब दा ने तो मोहन भागवत को राष्ट्रपति रहते रिसीव करने के लिए प्रोटोकॉल तक तोड़ा है.
लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है. प्रणब मुखर्जी के जाने की खबर आने के साथ ही कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों, समाजशास्त्रियों ने इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया था और प्रणब दा को नसीहत दी जा रही थी कि वो कतई संघ के इस कार्यक्रम में शामिल न हों.
यहां तक कि उनकी बेटी और कांग्रेस की नेता शर्मिष्ठा मुखर्जी ने अपने पिता को सार्वजनिक रूप से आगाह किया कि उनके संघ के कार्यक्रम में जाने से उन्हें कुप्रचार का सामना करना पड़ेगा. लोग प्रणब दा के भाषण को भूल जाएंगे और उनकी संघ प्रमुख के साथ की तस्वीरें दशकों तक उनका पीछा करती रहेंगी.
लेकिन यह भी समझना होगा कि नाहक ही संघ ने प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में नहीं बुला लिया. यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है. प्रणब को बुलाने का सबसे पहला लाभ तो यह हुआ कि जिस संघ शिक्षा वर्ग की खबर आंचलिक स्तर पर छप कर खप जाती थी, वो दो घंटे तक सभी बड़े मीडिया चैनलों पर लाइव दिखाया गया.
प्रणब को संघ के आंगन में दिखाने की उत्सुकता में पूरा देश संघ के प्रशिक्षित स्वयंसेवकों का लाठी चलाना, करतबें करना और पदसंचलन देख रहा था. इसके बाद लोगों ने मोहन भागवत को लाइव सुना. इस पूरे भाषण में हिंदुत्व की बात तो मोहन भागवत ने की ही लेकिन सावधानी से एक सॉफ्ट लाइन लेते भी नज़र आए.
संघ और उसके अनुशांगिक संगठनों के कार्यकलापों से विपरीत एक उदार हिंदू छवि को देशभर के सामने बखानने में मोहन भागवत सफल रहे. उन्होंने विविधता में एकता की बात कही. सभी धर्म जातियां एक भारत मां की संतान हैं. यहां पर रहने वाले सभी धर्मों के पूर्वज एक हैं जैसी बातें किसी भी सामान्य हिंदू व्यक्ति को सही और सकारात्मक ही लगी होंगी.
गन्ना के सामने जिन्ना का गाना फेल होते देखकर संघ के लिए ज़रूरी है कि वो अधिक उदार और समवेती नज़र आए. इसीलिए भाजपा और संघ संपर्क और संवाद का नारा लेकर प्रचार में निकल चुके हैं. प्रणब दा की उपस्थिति में मोहन भागवत का लाइव भाषण दरअसल 2019 के लिए संघ का खुलकर प्रचार में आने जैसा प्रयास था. इस दृष्टि से संघ अपने प्रणब के बहाने अपने प्रचार और छवि सुधार में सफल रहा.
भाजपा के लिए लाभ
दूसरा सबसे बड़ा लाभ भाजपा को हुआ है. भाजपा को पता है कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में वो 2014 का प्रदर्शन दोहरा पाने की स्थिति में नहीं हैं. सूत्र बताते हैं कि भाजपा 150 सीटों पर लोकसभा प्रत्याशी बदल सकती है. 80 सीटों पर उन्हें हार का डर है. लेकिन 50 सीटों पर उन्हें जीत की उम्मीद भी है. इन उम्मीद वाले राज्यों में दो नाम ओडिशा और बंगाल के भी हैं.
प्रणब दा का बंगाली होना और संघ के मंच से बोलना भाजपा के लिए बंगाल में अलग जादू की तरह काम करेगा. इसे बंगाली अस्मिता और सम्मान से जोड़कर प्रचारित करने में भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ेगी. ओडिशा के लिए मोदी पहले ही मन बना चुके हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में वो संभवतः पुरी से चुनाव लड़ें.
अगर ऐसा होता है तो इसका सीधा लाभ दोनों ही राज्यों में भाजपा को मिल सकता है. अमित शाह की गणित बंगाल से 22 सीटों की उम्मीद लगाए हुए हैं.
तीसरा बड़ा लाभ भाजपा को यह मिल रहा है कि वो पहले कांग्रेस के नेताओं को अपना नायक बनाने के प्रयास में लगे रहे. गांधी का चश्मा सरकारी योजनाओं का चिन्ह बन गया. पटेल की प्रतिमा के लिए देशभर से लोहा इकट्ठा करके मूर्ति बनाने की घोषणा कर दी गई. अंबेडकर के लिए मोदी जी जी-जान से जुटे हुए हैं कि उनके नाम पर स्मारक बनवाएं और कांग्रेस द्वारा उनके अपमान को जनता के बीच बार-बार दोहराएं.
सुभाष चंद्र बोस और लालबहादुर शास्त्री के परिवारों को भी जब-तब भाजपा अपने मंचों पर लाती रहती है और इस बहाने भाजपा कोशिश करती है कि कांग्रेस पार्टी के सारे नायकों को अलग-थलग करके उसे केवल एक परिवार की पार्टी के रूप में दुष्प्रचारित कर दिया जाए.
प्रणब दा की संघ के कार्यक्रम में उपस्थिति असंतुष्ट कांग्रेसियों के लिए संकेत भी है और संदेश भी. संघ और भाजपा जिस तरह से प्रणब दा की इस कार्यक्रम में जाने के बाद से तारीफ कर रहे हैं वो कांग्रेस के असंतुष्टों और वरिष्ठों को संदेश देना है. पहले ही कई बड़े कांग्रेसी चेहरे भाजपा में शामिल हो चुके हैं.
अगर सोशल मीडिया और बाकी प्रचार माध्यमों को देखें तो प्रणब दा के नाम से वो तस्वीरें और बातें वायरल की जा रही हैं जो न तो उनकी उपस्थिति की सच्चाई हैं और न ही उनके वक्तव्य की बातें. यह गंदा प्रचार तंत्र अब प्रणब दा को किस स्तर पर तोड़े-मरोड़ेगा, यह आगे आगे आप देखते ही जाएंगे.
सबसे बड़ा लाभ यह है कि नाथुराम गोडसे से लेकर हिंदू आतंकवाद के सवाल तक संघ को घेरने वाली कांग्रेस के पास अब अपने ही आंगन में एक विभीषण है. प्रणब दा के जाने से पहले तक के राहुल गांधी के भाषणों को याद कीजिए जहां राहुल ने संघ और भाजपा दोनों को एकसाथ खड़ा करके फासीवादी और लोकतंत्र का दुश्मन कहा है. संघ पर गांधी की हत्या का आरोप लगाने वाले राहुल गांधी के लिए प्रणब दा ने मुश्किलें ज़रूर खड़ी कर दी हैं.
भाजपा और संघ यह भी चाहते हैं कि कांग्रेस उनके बिछाए जाल के हिसाब से खेले और बोले और उसमें उलझती जाए. ऐसे समय में जबकि कांग्रेस को मुखर होकर सत्तापक्ष को घेरना चाहिए, वो खुद भाजपा और संघ के चक्रव्युह में उलझती नज़र आ रही है. सारी बहस का एजेंडा संघ औऱ भाजपा तय कर रहे हैं. विपक्ष फिलहाल उसी जलकुंभियों के तालाब में गोते खाता नज़र आ रहा है.
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