नई दिल्ली, 24 अप्रैल 2018 I जम्मू कश्मीर के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव में बलात्कार की दो घटनाओं के बाद फैले जनाक्रोश को देखते हुए केंद्र सरकार ने प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेस (पॉक्सो) एक्ट में संशोधन किए हैं. नए कानूनी प्रावधानों के तहत अब 12 साल से कम उम्र के बच्चों का रेप करने वालों को मौत की सजा हो सकती है. इन प्रावधानों को केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिलने के चौबीस घंटे के भीतर राष्ट्रपति ने भी अपनी सहमति दे दी. इस मामले में केंद्र सरकार ने तत्परता दिखाई. हालांकि, सरकार या न्यायपालिका की ओर से आज तक इस सवाल का जवाब नहीं दिया गया है कि क्या मौत की सजा का प्रावधान करने से अपराधों में कमी आती है?
पॉक्सो में नए प्रावधानों से बच्चों की सुरक्षा को खतरा?
रेप के मामलों में फांसी का प्रावधान 2012 में दिल्ली के निर्भया गैंगरेप के बाद से ही कर दिया गया था. इसके बावजूद रेप के मामलों में कमी देखने को नहीं मिली. बच्चों से रेप के मामले अधिक संवेदनशील होते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों से रेप के 95 फीसदी मामलों में आरोपी परिचित ही निकलते हैं. ऐसे में बच्चों से रेप के मामले में मौत की सजा का प्रावधान होने से बच्चों की सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है. बच्चों के सामने अपने खिलाफ यौन अपराधों को दर्ज कराने के लिए वयस्कों के मुक़ाबले बेहद कम विकल्प होते हैं. उन्हें इसकी रिपोर्ट से लेकर जांच तक के लिए अपने परिचितों या परिजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है.
सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता रवींद्र गढ़िया का मानना है कि अगर नए कानूनों से बच्चों के खिलाफ रेप के मामलों में कमी आई तो यह स्वागत योग्य कदम होगा, लेकिन अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि मौत की सजा से अपराधों में कमी नहीं आई है. वह कहते हैं कि पॉक्सो एक्ट में मौत की सजा के प्रावधान से पीड़ित बच्चों के लिए खतरा बढ़ सकता है. आरोपी अपनी जान पर खतरा जानकर बच्चों को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं. इस मामले में बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष निर्देश जारी नहीं किए गए हैं, न ही अन्य जरूरी कदम उठाए गए हैं. कुमाऊं विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे डॉ. प्रभात कुमार उप्रेती कहते हैं कि अपराधी यह सोच कर व्यवहार नहीं करता कि उसे फांसी लगेगी या नहीं. वह एक उन्मादी और बीमार इंसान की तरह व्यवहार करता है. न्याय व्यवस्था का मकसद होता है ऐसे अपराधी में सुधार लाना, लेकिन मृत्युदंड इंसानों में सुधार की संभावना को ही खत्म मान लेता है.
बच्चों को न्याय देने में कितने सक्षम हैं हम?
पॉक्सो एक्ट के नए प्रावधानों में बच्चों से रेप के मामलों की जल्द सुनवाई की भी बात कही गई है. NCRB के मुताबिक 2016 में अदालतों के सामने पॉक्सो एक्ट के तहत बच्चों से रेप के 64 हजार 138 मामले आए. इनमें से आईपीसी की धारा 376 (रेप के मामलों में सजा की धारा) में केवल 1869 को सजा सुनाई गई. बच्चों से रेप के कुल दर्ज मामलों के 3 फीसदी से भी कम में फैसला आ सका. यानी जल्द सुनवाई के लिए हमारे देश में न्यायिक ढांचा भी पर्याप्त सक्षम नहीं है. लॉ कमीशन की 1987 में आई रिपोर्ट कहती है कि देश में 10 लाख की आबादी पर 50 जज होने चाहिए, जबकि कानून मंत्रालय के मुताबिक 2016 तक हर 10 लाख की आबादी पर केवल 18 जज ही उपलब्ध थे. अधिवक्ता रवींद्र गढ़िया कहते हैं कि मौजूदा कोर्ट में से ही किसी को फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर कोर्ट की कमी तो पूरी कर ली जाएगी, लेकिन जजों की नियुक्ति बड़ा सवाल है. इसके बिना केस पेंडिंग ही रहेंगे. इसके साथ ही वह कहते हैं कि बच्चों से रेप जैसे संवेदनशील मामलों के लिए कोर्ट के गठन से ज्यादा अहम है जांच के स्तर पर सुधार करना.
मृत्युदंड: सजा देना या बदला लेना?
भारत में मृत्युदंड की सजा का स्रोत 1860 की आईपीसी है. डॉ. प्रभात उप्रेती बताते हैं कि यह कोड लिखते समय मैकाले ने कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि मृत्युदंड से कोई फायदा होगा, हालांकि ड्राफ्टिंग कमेटी ने इस प्रावधान को जारी रखा. उप्रेती के मुताबिक मौत की सजा हमारे समाज में सर्वमान्य सजा है और ऐसी मांग करने वालों के दिमाग में सजा देने और बदला लेने का अंतर स्पष्ट नहीं होता. इसलिए अक्सर रेप के आरोपी को भीड़ के हवाले करने, लिंग काट देने या फांसी देने की मांगें तक उठती रहती हैं.
आपको बता दें कि निर्भया गैंगरेप के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी कहा था कि रेप के मामलों में मृत्युदंड कानून सुधार की दिशा में पीछे की ओर ले जाने वाला कदम साबित होगा. कमेटी ने वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट (WGHR) की रिपोर्ट का हवाला देकर कहा था कि 1980 के बाद से भारत में फांसी की सजा की दर में कमी आई है. इसके बावजूद हत्या जैसे गंभीर अपराधों में भी कमी देखी गई है. यानी गंभीर अपराधों और फांसी का आपस में संबंध नहीं है. कमेटी रेप के गंभीर मामलों में अधिकतम सजा उम्रकैद रखना चाहती थी. कमेटी की टिप्पणी थी कि यह केवल मिथ है कि गंभीर अपराध के मामलों को रोकने के लिए मौत की सजा कारगर होती है.
पेन चुराने पर बच्चों को दी गई मौत की सजा
डॉ. उप्रेती कहते हैं, 'इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि मौत की सजा उस समय के नायकों को भी दी गई और इनमें सुकरात, ईसा मसीह, रॉब्सपीयर से लेकर भगत सिंह तक शामिल हैं और दूसरे संदर्भों में गांधी का नाम भी जोड़ा जा सकता है. इंग्लैंड में एक समय में पेन चुराने पर भी बच्चों को मौत की सजा दी गई और तब भी इसे सही ठहराने वाले लोग मौजूद थे. मौत की सजा असल में कबीलाई समाज की उपज थी. बाद में राज व्यवस्था धर्मों से संचालित हुई और न्याय व्यवस्था नैतिकता से. अधिकांश धर्मों की सबसे बडी सजा मृत्युदंड ही देखने को मिलती है. इसलिए तब कुरीतियों और अंधविश्वास के खिलाफ बोलने वालों को भी नैतिकता के आधार पर मौत की सजा दी गई. धर्म के बाद राज्य सत्ताओं ने भी इसे जारी रखा. फ्रांस, रूस और अमेरिका की क्रांतियों में तो यह सजा अपने विरोधियों को खत्म करने का साधन बनी.'
जब फांसी देने के बाद हुआ गलती का अहसास
न्यायिक व्यवस्था में मौत की सजा पर सवाल केवल हमारे देश में नहीं दुनिया भर में उठते रहे हैं. डॉ. उप्रेती बताते हैं कि इटली के कानूनविद सिजेर बकारिया ने 1764 में अपने पेपर 'ऐसे ऑन क्राइम एंड पनिशमेंट' में लिखा कि सभ्य समाज बनाने के लिए मौत की सजा को खत्म करना जरूरी है. उन्होंने सवाल किया था कि यह कैसी मूर्खता है कि इंसान की जान बचाने के लिए बनाए गए कानून ही उसकी जान ले रहे हैं. जबकि एक संप्रभु राज्य में नागरिक की जान लेने का अधिकार राज्य को नहीं है. उप्रेती कहते हैं कि मौत की सजा देने में अगर गलती हो गई तो उसे सुधारा नहीं जा सकता जैसा कि 2009 में संतोष कुमार बरियार बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र केस में हुआ. जस्टिस सिन्हा और फिराक जोसेफ ने 13 मृत्युदंड गलतफहमी में दिए थे और उनमें से दो को फांसी भी लग गई थी. ऐसे में उनका जीवन वापस नहीं लाया जा सकता.
भारत में क्या कहते हैं फांसी के आंकड़े?
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली (NLUD) ने अपनी 'डेथ पेनल्टी इंडिया रिपोर्ट 2016' में बताया है कि अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट भी रेप और बच्चों से रेप (गैर-हत्या) के मामलों में मौत की सजा का विरोध कर चुका है. इस रिपोर्ट में NLUD ने भारत में मौत की सजा पाए 385 कैदियों से बात की, जिसमें से 373 कैदी आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ी पृष्ठभूमि से थे. इस अध्ययन के मुताबिक मौत की सजा पाए 23 फीसदी लोगों ने कभी स्कूलों का मुंह नहीं देखा, 9.6 फीसदी लोगों ने प्राइमरी शिक्षा पूरी नहीं की थी और 61.6 फीसदी लोगों ने सेकंडरी स्कूल की शिक्षा हासिल नहीं की थी. इसके अलावा 76 फीसदी धार्मिक अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों से थे और 74 फीसदी आर्थिक रूप से दयनीय स्थिति में थे.
फिर कैसे रुकेंगे बच्चों से होने वाले रेप?
मृत्युदंड भी वीभत्स माने जाने वाले अपराधों को रोकने में विफल साबित होता है तो बच्चों से रेप जैसे मामलों को रोकने के लिए हमारे पास कौन सा रास्ता बचता है? इसके जवाब में रवींद्र गढ़िया कहते हैं, 'सबसे पहले तो सरकारों को जनता की भावनाओं से खिलवाड़ बंद करना चाहिए. लोगों को लगता है कि मौत की सजा से रेप के मामलों में कमी आ जाएगी तो सरकार फौरी तौर पर जनता को संतुष्ट करने के लिए ऐसी मांगों को मान लेती है, जबकि उसे ईमानदारी के साथ दुनिया भर के उदाहरण और आंकड़े देकर बताना चाहिए कि फांसी से अपराधों में कमी नहीं आती.'
वह आगे कहते हैं कि ऐसे मामलों में सूचना मिलते ही क्या कार्रवाई हो, अभी तक यही स्पष्ट नहीं है तो बाकी चीजों के बारे में सोचना दूर की कौड़ी है. उनके मुताबिक़ ऐसे मामलों से निपटने के लिए हर थाने में स्पेशल विंग हो जो पांच मिनट में पूरे इलाके की छानबीन कर सके और कोताही बरतने पर थानेदार को जिम्मेदार माना जाए. ऐसे अपराध नो टॉलरेंस पॉलिसी और प्रिवेंशन से रुकेंगे. वह कहते हैं कि सरकार मेहनत और पैसे खर्च करने से बचना चाहती है. ऐसे अपराधों को रोकने के लिए न्यायिक और पुलिस सुधार के साथ ही समाज को जागरूक करना भी जरूरी है. यह एक लंबी प्रक्रिया होगी. ऐसे मामलों में पीड़ितों के लिए तुरंत कार्रवाई, पारदर्शी जांच, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं और रिहैब सेंटर बनने चाहिए, जिससे आज तक सभी सरकारें मुंह मोड़ती आई हैं.
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